के.एल. दहिया1, संदीप गुलिया1 एवं प्रदीप कुमार2
1पशु चिकित्सक, पशुपालन एवं डेयरी विभाग, कुरूक्षेत्र, हरियाणा
2छात्र, बी.वी.एससी. एण्ड ए.एच. (इंटर्नी) आई.आई.वी.ई.आर. रोहतक, हरियाणा।
पशुओं में होने वाला यह संक्रामक रोग रिकेट्सिया नामक जीवाणुओं से होता है जो पशुओं में चिचड़ियों, मक्खियों एवं मच्छरों के काटने से फैलता है। आमतौर पर इस रोग का प्रकोप वर्षा ऋतु में अधिक पाया जाता है क्योंकि इस मौसम में रोग को फैलाने वाले बाह्य परजीवियों की संख्या सबसे अधिक होती है। इस रोग पीड़ित पशुओं में रोग के प्रारंभ में अनियमित बुखार होता है जिससे शरीर का तापमान 105 डिग्री फारेनहाइट से भी अधिक होता है। पशुओं में खून की कमी होने से खून पतला होता है और पशु में कमजोरी भी दिखायी देने लगती है। संक्रमित पशु सुस्त हो जाता है। उसको भूख कम लगती है या खाना-पीना छोड़ देता है और उनका शारीरिक भार कम हो जाता है। दुधारू पशु का दुग्ध उत्पादन कम हो जाता है। रोगी पशु का शरीर कांपने लगता है उसके दिल की धड़कन बढ़ जाती है। रोग के अग्रिम चरण में संक्रमित पशु धीरे-धीरे पीलियाग्रस्त हो जाता है। पशु को सांस लेने में परेशानी भी हो जाती है। पीड़ित पशु का व्यवहार आक्रामक या अनियन्त्रित भी हो सकता है। लालिमायुक्त काला पेशाब भी हो सकता है। पशु को कब्ज भी हो सकती है। गर्भित पशुओं में गर्भापात की समस्या भी देखने को मिलती है। रोगी पशु का समय पर उपचार एवं चिचड़ियों का नियंत्रण ही इस रोग बचने का उपाय है।
रोग से पीड़ित पशु का उपचार केवल प्रशिक्षित पशुचिकित्सक से ही करवाना चाहिए। पीड़ित पशु में खून की अत्याधिक कमी होने की स्थिति में उसी की प्रजाति के स्वस्थ पशु का खून भी चढ़ाया जा सकता है। लेकिन ऐसी परिस्थिति में यदि खून देने वाले पशु का एनाप्लाज्मा या अन्य किसी भी संक्रमण के लिए भी जांच हो जाती है तो बहुत अच्छा रहता है। जरूरतमंद पशु को खून चढ़ाने के लिए कृप्या “INNOVATIVE APPROACH OF BLOOD TRANSFUSION TO TREAT SEVERE ANEMIA IN RUMINANTS” को पढ़ने का कष्ट करें।
एनाप्लाज्मोसिस-रोमंथी-पशुओं-में-एक-घातक-रोग